सदात अली मंटो अर्थात एक ऐसा आइना जो सामने वाले चेहरे पर लगा कलंक न केवल दिखाता था अपितु चीख चीख कर बताने की सलाहियत भी रखता था। बेशक वो सिर्फ इतना ही मुसलमान था कि उसका नाड़ा खोलकर उसे दंगो की भेंट चढ़ा दिया जाता।
मंटो की पुणयतिथि पर उसको सादर स्मरण के साथ लेखक की अपनी कहानी।
आज 18 जनवरी है।
आज ही के दिन 1955 को लक्ष्मी मेन्सज़, माल रोड लाहौर में लुधियाना में जन्मे आईना कहानीकार
सआदत हसन मंटो ने अपना दुनियावीं सफर पूरी किया था।
टोबा टेक सिंह के नाम से प्रसिद्ध और ठंडा गोश्त के साथ साथ हक़ और दर्द को अल्फ़ाज़ देने वाला कोई दूसरा नाम अभी याद नहीं आ रहा।।
टोबा टेक सिंह नामक कस्बा तो हमने देखा है लेकिन अपनी कहानियों में लक्ष्मी नामकी नायिका के पीछे शायद घर का पता रहा होगा जो अब टूट कर प्लाजा बन चुका है।
लेकिन आज़ादी के साथ पंजाब को धर्मांध टोलो ने कितना दर्द दिया उसकी एक सत्य घटना -
पहुंची वहीँ पे ख़ाक़, जहाँ का ख़मीर था।
दिल्ली में ही एक मित्र ने अपने निकटतम मित्र से मिलने के लिए दबाव दिया।
मुलाकात में उन्होंने बताया कि जब देश का बंटवारा हुआ था तो उनकी बुआ छोटी थी और दंगे फसाद में वहीँ रह गई थी।
दादा,दादी तो अपनी इकलौती बेटी को याद करते करते गुजर गए लेकिन अब पिताजी भी बिस्तर पर है और बीमारी की स्थिति में भी अपनी गुड्डो को याद करते रहते है तथा उन्हें भरोसा है कि वो जीवित होनी चाहिये।
यहां निजता का सम्मान करते हुए शहर तथा व्यक्तियों का नाम नही लिखूंगा लेकिन उनका पुश्तैनी स्थान मेरी पहुंच से बहुत दूर नही था।
क्योकि शीघ्र जाना था तो जितनी जानकारी उनसे मिल सकती थी प्राप्त की और बुआ जी की तलाश शुरू कर दी।
जो कभी छोटा सा कस्बा था अब बड़ा शहर बन चुका था लेकिन स्थानीय तहसीलदार ने मदद की और उनकी सम्पतियों तक पहुंचे तो एक बुज़ुर्ग से मालूम हुआ कि जिन सरदार जी की बच्ची की जानकारी मै ले रहा हूँ ऐसे थे भी और उनकी बच्ची को उनके दोस्त ने अपनी बेटी की तरह पाला पोसा था।
आगे बढ़ने पर एक अम्माँ जी ने बताया कि इस लड़की ने शादी नही की थी और वो ज़हनी तौर पर कमजोर थी तो उसके बाप के गुरद्वारे में ही रहने लगी थी आप फलाने मन्दिर के नीचे वाले मकान में देख ले।
उस पुराने मकान में एक बूढ़ी अम्माँ लेटी हुई थी, दो चार बर्तन थे, खाने, पहनने और दवा दारू का इंतजाम पड़ोसी करते थे जिसके लिए पैसा बाहर के दुकानदारों से आता था जो उस मकान मालिक के किराएदार थे।
हमने आवाज़ लगाई " नी गुड्डो ए " अचानक अम्मा के शरीर में जान आ गई। बात चीत हुई, सरकार को विशेष प्रार्थना की तथा दिल्ली से बुआ जी के दो भतीजे और एक बहु को तुरन्त बुलवाया।
तीसरे दिन वो पहुंच गए और शायद बुआजी को अपनी खुशबू का अहसास हुआ होगा जो परिचय कराने की आवश्यकता नहीं हुई।।
खाना खाया, चाय आयी तो छोटे भतीजे ने ( वो भी 45-50 साल के होंगे) अपने हाथ से चाय पिलाई, बुआजी ने दो घूंट भरे और उसके हाथों में ही लुढ़क गयी।।
मालूम किया तो बताया कि इस ख़ातून ने मज़हब नही बदला था इसलिए जैसे चाहे रुख़्सती कर दे।
क्योंकि अब वहां कोई श्मशान घाट नही था तो आधिकारिक अनुमति लेकर काफी दूर दूसरे शहर में उनका अंतिम संस्कार किया।
लगभग आधा शहर उनकी मैय्यत को बाहर तक विदा करने आया था और बाजार बंद रखकर इज्जत दी।।।।।
यह 2015 की घटना है। उन्हें फिर नही मिला
मंटो तुम कभी मर नहीं सकते क्योंकि वहशियत तुम्हारी याद कराती रहती हैं फिर भी News Number परिवार तुम्हे शिद्दत से याद करता है।
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