अमेरिका और नाटो फोर्सेज के अफगानिस्तान से निकलने के निर्णय के बाद परिवर्तन देखे जा रहे है और दुनियां भर की निगाहे इधर लगी हुई है।
जिस तेजी से तालिबान बेहतर सामरिक योजना बनाकर आगे बढ़ रहे है उससे लगता है कि बहुत जल्द ही वो काबुल फतह करने के बाद अपनी सत्ता कायम कर लेंगे हालांकि पहले उन्हे केवल तीन देशों ने मान्यता दी थी लेकिन शायद इस बार विश्व समुदाय उन्हे स्वीकार कर रहा है।
इस संदर्भ में ब्रिटेन का बयान भी हैरान करने वाला है जिसके संकेत बताते है कि वो तालिबान के शासन का विरोध नहीं करेंगे और चीन, रूस, अमेरिका, ईरान सहित जिस प्रकार उन्हे विभिन्न देशों द्वारा आमंत्रित किया जा रहा है वो भी उनके पक्ष में जाता हैं।
लेकिन क्या इसके बाद उम्मीद जताई जा सकती है कि क्षेत्र में शांति स्थापित हो जाएगी ? क्या तालिबान का शासन भारत, पाकिस्तान और ईरान के लिए कोई परेशानी पैदा करने वाला नहीं होगा ?
इन सवालों का जवाब अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति और तालिबान की सोच को ध्यान में रखते हुए तलाश करे तो नकारात्मक उत्तर ही मिलता है।
तालिबान ने स्पष्ट कर दिया है कि वो अपने शासन में इस्लामिक शासन पद्धति स्थापित करेंगे और उनके देश का नाम इस्लामिक अमीरात ऑफ़ अफगानिस्तान होगा। किन्तु अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि उनके अमीरात की सीमाएं कहां तक होंगी ?
याद रखना चाहिए कि कम्युनिस्ट विचारधारा और इस्लामिक विचारधारा राष्ट्र या सरहदों पर विश्वास नहीं करता और उनके लिए सम्पूर्ण मानव जाति एक राष्ट्र है तथा सभी कम्युनिस्ट/ मुस्लिम उनके परिवार जैसे है।
पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सरहदें जिस डुरेंड लाइन से दोनों देशों को अलग करती हैं उसे लेकर सदैव विवाद रहा है कुछ ऐसा ही अफगानिस्तान सरकार द्वारा पाकिस्तान के पख्तून बहुल क्षेत्रों को लेकर कहा जाता रहा है क्योंकि एक समय में पेशावर और क्वेटा सहित चमन तथा स्वात एवम् सम्पूर्ण कश्मीर अफ़गान सल्तनत का हिस्सा थे।
इसी प्रकार उज़्बेकिस्तान का कुछ भाग तथा ईरान के साथ भी सीमा विवाद रहा है बेशक ब्रिटिशर्स के समय में इसे दबा दिया गया और पाकिस्तान तथा कश्मीर के विवादित भाग भी महाराजा रणजीत सिंह ने ही जीत कर लाहौर सल्तनत में मिलाए थे जो बाद में हिंदुस्तान का हिस्सा बन गए।
इसके साथ ही यह भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि इन संगठनों को अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने ही खड़ा किया है तथा बेशक आज पेंटागन एक ओर खड़ा होकर पॉपकॉर्न चबा रहा हो किन्तु वो इस क्षेत्र को छोड़कर न जा सकते है न जाएंगे। इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान तालिबान में भी बहुत से अमेरिकी समर्थक होंगे !
इसके अतिरिक्त कुछ वर्ष पहले इराक़ में आतंकी डिफेंस कॉन्ट्रेक्टर को भी ध्यान रखना चाहिए जिनके काले झंडों पर भी कलमा होता था और उनकी मान्यता थी कि वो पूरे विश्व को इस्लामिक शासन पद्धति के अंतर्गत लाएंगे।
संशय बरकरार है और रहेगा क्योंकि अपने सूत्रों के माध्यम से जब यही सवाल उनके प्रवक्ता से पूछा गया तो उन्होंने चुप्पी साध ली बेशक फिलहाल मदद लेने के लिए उन्होंने चीन और पाकिस्तान को आश्वासन दिया है कि अफगानिस्तान की जमीन से किसी देश के विरूद्ध कार्यवाही करने की इजाजत नहीं होगी लेकिन यदि बाद में विवादित क्षेत्र को वो अपना बताकर युद्ध छेड़ दे तो क्या होगा ?
आशा करनी चाहिए कि इस विषय पर भी शीघ्र ही स्थिति स्पष्ट हो जाएगी तथा इससे पहले कि तालिबान खुद ही कोई खतरा बन जाए सभी देश मिलकर उसका समाधान निकाल लेंगे।
आंगन में सांप घुस आया और उसकी दहशत से परिवार पहले तो घर के अंदर सांस रोक कर छिपा रहा लेकिन बाद मे सांप की लकीर पीट कर खुद को बहादुर और बुद्धिमान साबित करने की कोशिश करने लगा। कुछ ऐसा ही दक्षिण एशिया में शह और मात जैसे खेल खेलने में भारत सरकार का विदेश मंत्रालय नजर आ रहा है। ...
अंतरराष्ट्रीय राजनीति और दुनियां के बदलते समीकरण की बात करते ही सबसे महत्वपूर्ण घटना अमेरिकी एवम् नाटो फोर्सेज का बीस साल की जद्दोजहद के बाद अफगानिस्तान को छोड़ कर निकल जाना है। ...
20 साल तक जमीन के छोटे से टुकड़े और क़बीलाई संस्कृति वाले दिलेर लोगो की बस्ती पर विश्व के 40 देशों एवम् महाशक्ति अमेरिका की फोर्सेज कोशिश करती रही कि वहां भी पश्चिमी जगत बना दिया जाए। उसी समय ( 2001) पाकिस्तान के हामिद गुल ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि इस प्रयास में अमेरिका को अमेरिका द्वारा ही हराया जाएगा और वही हुआ। ...
स्लतनतों की कब्रगाह के नाम से प्रसिद्ध धरती का ऐसा भूभाग जिसकी मिट्टी में युद्ध और अशांति जंगली घास की तरह उपजती है। दक्षिण एशिया और मध्य एशिया को जोड़ने वाले इस सामरिक महत्व के प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर हिस्से को अफगानिस्तान के नाम से जाना जाता है। मैथोलॉजी और किवदंतियों में महाभारत से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य तक का सम्बन्ध तत्कालीन गांधार देश से जोड़ा जाता हैं तो अलेक्जेंडर और रोमन साम्राज्य से भी टकराने के लिए याद किया जाता है किन्तु क्या इसका वास्तविक इतिहास ऐसा ही था ? ...
एक ओर तो अफगानिस्तान में गृहयुद्ध की आशंका बढ़ रही हैं तो दूसरी ओर सभी पक्ष अपनी अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित है। ...
अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ साथ अफ़गान राष्ट्रपति अशरफ गनी को कोई सकारात्मक आश्वासन न मिलना क्षेत्र के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। ...
इस प्रकार बहुचर्चित अफ़गान राष्ट्रपति अशरफ गनी की अमेरिकी यात्रा खत्म हुई । वापसी के बाद अफगानिस्तान एवम् दक्षिण एशिया के भविष्य की क्या स्थिति हो सकती हैं। ...
बीस साल से चल रही जंग की समाप्ति के साथ ही अमेरिका द्वारा अमेरिकी एवम् नाटो फोर्सेज की वापसी के साथ ही अफ़गान तालिबान द्वारा अधिकांश क्षेत्रो पर कब्जे के बीच अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाकात की। ...
जिस तेजी से अमेरिकी सैनिकों की वापसी अफगानिस्तान से हो रही है और तालिबान द्वारा अफ़गान जमीन पर अपना कब्ज़ा कायम किया जा रहा है उससे सम्भावित भविष्य के हालात पर तालिबानी प्रवक्ता सुहैल शाहीन से एक बात।। ...
तेजी से अफगानिस्तान को विकल्पहीन छोड़कर निकलती नाटो एवम् अमेरिकी फोर्सेज के बाद अफगानिस्तान का भविष्य एक बड़ा सवाल बनकर उभर रहा है।। ...
भारतीय विदेश मंत्री श्री एस जयशंकर प्रसाद की दोहा एवम् कुवैत यात्रा के बीच अफगानिस्तान के सरकारी मीडिया टोलो न्यूज द्वारा भारत द्वारा तालिबान से सम्पर्क करने की खबर का क्या अर्थ हो सकता है ? ...
जैसे जैसे अमेरिकी एवम् नाटो फोर्सेज अफगानिस्तान से अपने अड्डे खाली कर रहे है और अफगानिस्तान से निकल रहे हैं वैसे ही दक्षिण एशिया किसी बड़े युद्ध की ओर तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है।। ...
अफगानिस्तान से अमेरिकी एवम् नाटो फोर्सेज की वापसी के साथ ही भड़के गृहयुद्ध से भारत को अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार रहना चाहिए।। ...
अमेरिकी सैनिकों की वापसी के कार्यक्रम के साथ दिए जा रहे बयानात के मद्देनजर अभी दक्षिण एशिया में शांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। ...